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Friday 27 September 2013

मीडिया और किसान

बाजार में खड़ा मीडिया और किसान सरोकार

अनिल चौधरी
विश्व बिरादरी में भारत की पहचान मूलत: एक कृषि प्रधान देश की रही है। 21वीं सदी में नई औद्योगिक शक्ति के बतौर भारत के उदय के जोरदार दावों के बावजूद देश की ज्यादातर आबादी आज भी गांवों में कृषि या अन्य सहायक क्रियाकलापों से गुजर-बसर करती है। आजादी के 60 वर्षों के बाद भी भारतीय बस्तियां पश्चिमी देशों जैसी बुनियादी सुविधाओं व नागरिक चेतना से वंचित है। गांवों का तो और भी बुरा हाल है। यहां एकाधिक कारणों से आर्थिक ढांचा क्षत-विक्षत हुआ है तो सामाजिक बुनावट के भी रेशे बिखर गए हैं। शहरी व ग्रामीण इलाकों, शहरियों व देहातियों, संपन्न व वंचितों तथा अभिजन व आदिवासियों के बीच खाई और चौड़ी हुई है। लोकतंत्र की अर्थवत्ता इस खाई को पाटने से है लेकिन संसदीय लोकतंत्र के आधी सदी से भी ज्यादा के हमारे अनुभवों का निष्कर्ष इसके विपरीत जाता प्रतीत होता है। खास तौर पर पिछली सदी के आखिरी दशक में शुरू हुआ आर्थिक उदारीकरण व भूमंडलीकरण सामाजिक रूप से विघटनकारी साबित हुआ। इसने समर्थों को और शक्ति प्रदान की किन्तु वंचितों को पहले से ज्यादा कमजोर बना दिया। अमीरों व गरीबों के बीच फासला अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा। ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह पिछड़ गई और देश का पेट भरने वाले किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या करने को मजूबर हुए। उदारीकरण के परिणामस्वरूप लोकतंत्र को मजूबती देने वाले स्वर या तो मंद पड़ गए या उन्होंने कोई और राग अलापना शुरू कर दिया।
आज नकदी फसलों और अनाज उत्पादन, दोनों ही मोर्चों पर किसान शोषण का शिकार है। उन्हें न तो कपास व गन्ने का उचित मूल्य मिलता है और न ही धान, जवार, गेहूं या अन्य नकदी फसलों का। भूमंडलीकरण के बाद, जब किसानों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के बीच ज्यादा सब्सिडी और संरक्षण की जरूरत थी, उन्हें भ्रष्ट सहकारी बैंकों व साहूकारों के रहमोकरम पर असहाय छोड़ दिया गया। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जहां देश के बड़े औद्योगिक समूह सब्सिडी सहित अरबों रुपयों के ऋण आसानी से हासिल कर लेते हैं, वहीं किसानों को अपनी फसलों हेतु मामूली रकम के लिए भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। उद्योगपतियों का विशेष रियायतों के बावजूद ऋण हजम कर जाने पर भी बाल बांका नहीं होता, किसान मामूली किश्त अदा न कर पाने के कारण हवालात में ठूंस दिए जाते हैं या खेत नीलाम कर दिए जाते हैं। घाटे और कर्ज में डूबे देश के कई हिस्सों के किसान इन परिस्थितियों में खुद को असहाय पाकर बड़ी संख्या में आत्महत्या करने को विवश हुए हैं और यह क्रम बदस्तूर जारी है।
परंपरागत रूप से मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। लेकिन आर्थिक उदारवाद के मौजूदा दौर में वैश्विक रूप से पत्रकारिता की [चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक यह परिभाषा अपने अर्थ खो रही है। एक जमाने में पत्रकारिता एक मिशन मानी जाती थी। समाचार माध्यमों से सत्ता-प्रतिष्ठान के बजाय विपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती थी। इस भूमिका में खरे उतरने वाले पत्रकार अपनी विपन्नता के बावजूद समाज में इज्जत पाते थे। पिछले दो दशकों में तेजी से बदले सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में आज पत्रकारिता एक मुनाफेदार कारोबार का स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। भारत में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की बयार ने मानव गतिविधियों की तमाम किस्मों का आंतरिक कायान्तरण किया। पत्र, पत्रकारिता और पत्रकार भी इससे अछूते नहीं रहे।
उन्नीस सौ नब्बे के दशक के बाद देशभर में समाचार माध्यमों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इस दरम्यान अंग्रेजी अखबारों का वर्चस्व टूटा और भाषाई अखबारों के साथ-साथ टीवी पत्रकारिता ने सफलता के आश्चर्यजनक कीर्तिमान स्थापित किए। देशभर में साक्षरता दर में हुई बढ़ोतरी के सुपरिणाम निकलने शुरू हुए और पत्र-पत्रिकाएं शहरों-कस्बों की सीमाएं लांघ दूर देहातों तक अपनी पैठ बनाने में कामयाब हुईं। राष्ट्रीय अखबारों के जिला स्तरीय संस्करण निकलने लगे और संवाददाताओं को विज्ञापन जुटाने का दायित्व सौंपा जाने लगा। इसके साथ-साथ निजी टेलीविजन चैनलों को खबरों के प्रसारण की इजाजत के बाद पैदा हुई खबरिया चैनलों की बाढ़ ने तो मीडिया को एक कमाऊ इंडस्ट्री में तब्दील कर दिया। समाचार माध्यम आम जन तक उपभोक्ता सामग्रियों के प्रचार को पहुंचाने का प्रमुख जरिया बन गए। भारी लागत मूल्य वाले अखबार को सस्ती कीमत में बेचकर भी अखबार मालिक विज्ञापनों की बदौलत भारी मुनाफा कमाने की स्थिति में आ गए।
आज मुख्यधारा की पत्रकारिता पूरी तरह बाजार के नियंत्रण में है। दूसरे उपभोक्ता उत्पादों की तरह ‘खबर’ को भी एक उत्पाद समझा जाता है और इसे ‘बेचने’ और मुनाफेदार बनाने के लिए मार्केटिंग के नुस्खों का इस्तेमाल किया जाता है। परिणामस्वरूप किसी जमाने में स्वायत्त हैसियत रखने वाले पत्रकार अब बाजार प्रबंधकों के निर्देशों से संचालित होते हैं और खबरों के चयन में ‘व्यावसायिक हित’ निर्णायक भूमिका निभाने लगे हैं। ऐसे में देश की बड़ी आबादी, जो दुर्भाग्यवश गरीब भी है, के सरोकार मीडिया की सुर्खियों में हाशिए पर धकेलने का सिलसिला चल निकला है। बीते एक दशक में आर्थिक तंगी के कारण लाखों किसानों के आत्महत्या कर लेने की दर्दनाक कहानियां मीडिया इंडस्ट्री में मनोरंजक खबरों के बीच दम तोड़ गईं। इसी तरह विशेष आर्थिक क्षेत्रों की खातिर उजड़े किसान, जीएम फसलों का मकड़जाल, बाजार के इशारे पर बदलता भूमि उपयोग, गांवों में बुनियादी सुविधाओं की बदहाली, बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था, दलित-महिला उत्पीड़न आदि मुद्दे सामान्यतया चटपटी खबरों की रेलमपेल में पीछे छूट गए हैं। टीवी के लिए भी किसानों की आत्महत्या की खबर एक चटखारे अंदाज में जगह पाईं या फिर उसको राजनीति से जोड़कर समूचा परिदृश्य ही बदल दिया गया। ग्रामीण विकास की अवधारणा को ही उलट-पुलट करने का काम इस दौर में मीडिया खासकर टीवी ने बड़ी बेरहमी के साथ किया। शहरीकरण की अंधीदौड़ से शहरों में फैली अराजकता को तो मीडिया ने कवरेज का मुख्य बिंदू माना लेकिन उसके कारणों की पड़ताल करने की जहमत नहीं उठाई गई। कभी भी गांवों की उस खिड़की में झांकने की जहमत टीवी पत्रकारों ने उठाना गवारा नहीं समझा जहां मूलभूत सुविधाएं सिरे से अभी भी गायब हैं, और हैं भी तो भ्रष्टाचार की बेल ने उनको इस कदर जकड़ा कि उसका बीस फीसदी से अधिक वहां तक पहुंच ही नहीं पाया। यह भी देखना गवारा नहीं किया गया या किया जा रहा कि देश का पेट पालने वाली अस्सी फीसदी जनता के पास क्या है, क्या दिया गया और उसका हश्र क्या हुआ। हां , इतना अवश्य होता है कि जब कोई बड़ा नेता राहुल गांधी सरीखा किसी झोपड़ी में रात बिताता है तो वह खबर समूचे दिन सुर्खियों में रहती है और एक गरीब परिवार को टीवी के जरिए बेचने का काम किया जाता है।
गलती मीडिया की कैसे मानी जाए, दरअसल ग्रामीण परिवेश से जुड़े मीडियाकर्मियों का घोर अकाल भी है या दूसरे शब्दों में कहें गांव से जुड़ी खबरों के लिए स्थान ही नहीं है। जिसको लौकी की बेल या पेड़ का फर्क नहीं मालूम और जिसको शुगर की क्यूब बनने के पीछे की पीड़ा पता ही नहीं उससे कैसे हम किसानों के दुख-दर्द या गुड़ की सोंधी महक के उजागर करने की कल्पना कर सकते हैं।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि रेडियो और दूरदर्शन को पापुलर बनाने के पीछे इसी ग्रामीण जनता का ही हाथ है। यही वजह है कि अब चाहे वह पत्र-पत्रिकाएं हों, दूरदर्शन हो, रेडियो हो या फिर निजी चैनल गांवों को टारगेट कर रहे हैं। रेडियो के स्टेशन अब गांवों में खोलने की कवायद की जा रही है। गांवों में कालसेंटर स्थापित करने के पीछे भी वहां पर सस्ते श्रम की गणित बिठाई जा रही है। अब वह दौर है जब खाद्यान्न संकट की खबरों ने सबको हिलाया है और इराक-इरान जैसे रेगिस्तानों के देश में शेख खेती करने की वकालत कर रहे हैं। निजीकरण के चलते उपजी भयावह मंदी की तस्वीर किसी से छिपी नहीं है। इस बात को सीएसीपी के पूर्व चेयरमैन डॉ. टी हक भी मानते हैं कि भारत की सुदृढ़ कृषि अर्थव्यवस्था ने ही मंदी की मार से बचाया। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि खेती-किसानी को विज्ञापनदाता न होने की वजह से हाशिए पर धकेलने का काम किया गया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अब खेती की अनदेखी करने वाले मीडिया को उसकी कीमत चुकानी होगी। और शायद यही वजह है कि प्रसार व प्रसारण बढ़ाने के लिए अब क्षेत्रीय संस्करणों व स्थानीय चैनलों की लंबी दौड़ दिखाई दे रही है।
पत्रकारिता आज कई स्तरों पर संक्रमण के दौर से गुजर रही है। पहला, संक्रमण इसकी बुनियादी पहचान का है। पत्रकारिता के गुरु बिल कोवाच के शब्दों में, ‘पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य नागरिकों को ऐसी सूचनाएं उपलब्ध कराना है, जिसकी मदद से वे स्वतंत्र चेता और स्वशासित बन सकें।’ लेकिन पत्रकारिता के इस सिद्धांत को बाजार अर्थव्यवस्था की ओर से चुनौती मिल रही है। टेक्नोलॉजी नए आर्थिक संगठनों और सूचना संस्थानों को जन्म दे रही है, जो पत्रकारिता के चरित्र को भीतर ही भीतर बदल रहे हैं। आज स्वतंत्र पत्रकारिता को सरकारी सेंसर से उतना डर नहीं, जितना कि कारोबारी हस्तक्षेप से है। क्या लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के अपने प्राथमिक कार्यभार को तिलांजलि दे यह एक मुनाफेदार करोबार तक सिमट कर रह जाएगी? क्या मीडिया की भूमिका बाजार के संदेशवाहक मात्र की रह जाएगी? क्या सिर्फ मोटी जेब वाले उपभोक्ता वर्ग तक ही इसका सरोकार रहेगा और बाजार से बाहर छूट गया किन्तु आर्थिक रूप से विपन्न वृहत्तर समाज इसकी चिंताओं से बाहर हो जाएगा? सत्ता-प्रतिष्ठान के बजाय विपक्ष की भूमिका को छोड़ क्या पत्रकारिता सत्ता की निरंकुशता को वैधता प्रदान करने और उपभोक्तावादी मानसिकता को आगे बढ़ाने का जरिया मात्र रह जाएगी?
उपरोक्त प्रश्न पत्रकारिता के चरित्र एवं भविष्य के बारे में विचार करने की जरूरत को रेखांकित करते हैं। इन प्रश्नों से जुड़े अलग-अलग आयामों पर बुद्धिजीवियों ने अवश्य विचार किया है लेकिन इन्हें समग्र रूप से सोचा जाना चाहिए और इसकी पड़ताल कर निष्कर्षों पर भी पहुंचा जाना चाहिए। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि लोकतंत्र सिर्फ सार्विक मतदान के जरिए सरकार चुन लेने भर की कवायद नहीं है। यदि समाज में सभी को आगे बढ़ने के समान मौके नहीं मिलते या सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक प्रगति के फलों के रसास्वादन का मौका नहीं मिलता, तो लोकतंत्र महज एक साइनबोर्ड भर रह जाएगा। चूंकि मीडिया की भूमिका लोकतंत्र के स्वास्थ्य की निगरानी रखने वाले डॉक्टर की है, इसलिए इसके पथभ्रष्ट होने के दुष्परिणामों का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है।
भारत में नगरीकरण शास्त्रीय संदर्भ में आधुनिक चेतना का वाहक नहीं बना। चूंकि हमारे देश में लोकतंत्र का नागरिक चेतना से खास वास्ता नहीं है, शिक्षा व सूचना से वंचित गांवों में इसने पारंपरिक सामुदायिक जीवन को नष्ट कर हिंसक  धडे़बंदियों को जन्म दिया है। हाल फिलहाल बाजार अर्थव्यवस्था के गांवों तक पहुंचने के बाद से उपभोक्तावाद व अश्लील संस्कृति ने गांवों की बदसूरती की रही-सही कसर भी पूरी कर दी। ऐसे में मीडिया का रोल खासकर टीवी पत्रकारिता का और भी अहम हो जाता है क्योंकि किसी भी देश की तरक्की का रास्ता खेती-किसानी से ही होकर गुजरता है और एक स्वस्थ देश के निर्माण में वहां के युवाओं की भूमिका महती होती है।




Tuesday 10 September 2013

सियासत का खेल




सियासत को लहू पीने की लत है,

वरना मुल्क में सब खैरियत है।

मुजफ्फरनगर हिंसा की चपेट में है और आधा सैकड़ा लोगों की जान जाने के बाद भी नफरत की भड़की इस आग में राजनेता रोटियां सेकने से बाज नहीं आ रहे। आएं भी क्यों, उन्हें लगता है कि सत्ता का रास्ता इन्हीं गलियारों से होकर जाता है। लोहिया का समाजवाद क्या यही था या राम ने ऐसे रामराज की कल्पना कभी की होगी। उत्तर हर पढ़ा लिखा और अनपढ़ आदमी भी दे सकता है लेकिन वह संगठित नहीं है इसलिए उसके एकल विचार की कोई एहमियत नहीं और न ही कभी तवज्जो दी जाती है।

मुजफ्फनगर की इस सांप्रदायिक हिंसा की खूब चीरफाड़ होगी। एक से बढ़कर एक सामाजिक, राजनीतिक विश्लेषक समीक्षा करेंगे लेकिन हकीकत के धरातल पर असली समीक्षा उन्हें ही करनी है जिनको वहां रहना है। खेती करनी है या खेती से अपने घर बनाने सवारने हैं। ऐसे समाज में घूम रहे वोट के भूखे भेड़ियों से बचना अब उस हर शख्स का काम है जो जयश्रीराम के नारों के साथ तलवारें म्यान से निकालते हैं या फिर अल्लाह के नाम पर खंजरों की धार तेज करते हैं।

इतिहास गवाह है कि जब-जब इस गंगा-जमुनी तहजीब पर किसी की बुरी नजर पड़ी तब-तब इस इलाके में रहने वाले सभी मजहब के लोगों ने उस चुनौती को अपनी माटी की अस्मिता से जोड़कर उसका मुकाबला किया।

कितना भी बड़ा मुकदमा गांव की पंचायत में बेहद शालीनता के साथ निबटा लिया गया। रामकिशन ने खुद चंदा देकर मस्जिद बनवाने में योगदान किया तो आसिफ मियां ने कन्नी लेकर मंदिर की नींव में उसी शिद्दत के साथ योगदान किया। तो नफरत आई कहां से। स्वाभाविक है इसके उत्तर खुद ही तलाशने होंगे।

अब न वो पंचायतें रहीं ओर न ही वे हुक्मरान जो कौमी एकता की मिसाल बनते थे। पंच भी घर से ही एक पक्षीय फैसला करके पंचायतों में जाने लगे तो ऐसी पंचायतों का ही अस्तित्व अंतिम सांस ले रहा है। इस बात की चिंता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत को भी थी। अक्सर उनके साथ काफी लंबी-लंबी गुफ्तगू हो जाती थी तो इस बात पर वह काफी असहज और चिंतिक दिखते थे। कहते थे कि इसीलिए समाज का पतन हो रहा है और चरित्र गिर रहा है। और जिस समाज का चारित्रिक पतन होने लगता है तो ऐसे कौमें इतिहास में ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पातीं इसीलिए इनको जोड़ने की कोशिश होती रहनी चाहिए। यही राजनीतिक दलों की स्थिति है।

मुजफ्फनगर की घटना में आपको ये सभी तत्व मिल जाएंगे। कवाल में हुई घटना आक्रोश का परिणाम थी लेकिन उसको हवा देने का काम किया सबसे पहले प्रशासन ने उसके बाद हिन्दू संगठनों ने और इसका राजनीतिक लाभ लेने का गणित भिड़ाया सपा ने। इस त्रिशंकुषड़यंत्र के बीच जिसके दो बेटे मारे गए उस बाप की चीत्कार पंचायत के मंच के शोर में कहीं गुम हो गई और वोटों के धु्रवीकरण का शंखनाद हावी होता चला गया।

कुछ सवाल यहां और भी खड़े हो रहे हैं। माना जाता है कि समाज का सबसे तीव्र बुद्धि वाला तबका होता है जो प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करता है। लेकिन प्रशासनिक अधिकारी भी पार्टीबंदी में उलझकर रह गए हैं। देश की अस्मिता, सार्वभौमिकता और अखण्डता को बचाए रखने की कसम खाने वाला यह प्रशासनिक अमला अधिकांशतया ऐसे नेताओं के तलवे चाटता दिखाई दे रहा है जिनकी न कोई विचारधारा है और न ही कोई जमीर। इनमें से कोई हिन्दू के नाम पर समाज में विष घोल रहा है कोई जाति के नाम पर। अब तो गोत्र तक लोग उतर आए हैं।

सभी कहते नहीं अघाते कि देश या प्रदेश बर्बादी की कगार पर है। उनसे पूछो कि समस्या का हल क्या है तो तपाक से कहते हैं कि हमारे धर्म या जाति का नेता सीएम या पीएम बने तो समस्या खत्म।

सवाल ये उठता है कि इस सोच को पैदा ही क्यों होने दिया गया। इसके लिए देश की आजादी के बाद के लोगों को दोष के कटघरे में खड़े किया जाए या फिर उससे पहले के अलंबरदारों को या उससे भी पहले के, जब से समाज अस्तित्व में आया। सवाल का जवाब मिलना बेहद कठिन है।

जब कोई मजहब आपस में बैर करना सिखाता ही नहीं है तो ऐसे लोगों को राक्षस या जिन्नात की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए जो बैर करना सिखा ही नहीं रहे बल्कि उसके लिए मजबूर कर रहे हैं।

मैं फिर मुजफ्फनगर की घटना पर ही आ रहा हूं। प्रशासन ने आधा सैकड़ा लोगों के शवों को देख अपनी आत्मा की आवाज सुनी और जिन लोगों को शुरुआती दौर में नामजद किया गया था उनको निर्दोष करार दिया। यही एकमात्र लोगों की मांग भी थी लेकिन यह सब तब किया गया जब दो कौमों के बीच नफरत की खाई को इतना चौड़ा होने का मौका मिला जिसको भरने में दशक बीत जाएंगे।

चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने रामजन्म भूमि विवाद से भड़की इन दोनों समुदाय के बीच की नफरत को भोपा में 8 अगस्त 1989 को पाटने का ही काम नहीं किया बल्कि आपसी भाईचारे की नींव को दशकों तक इतना मजबूत रखा, कि इस दौरान बड़े से बड़ा सांप्रदायिक हवा का झोंका उसका बाल भी बांका नहीं कर सका। इस विरासत को उन्होंने जिनको सौंपा वह भी लाख कोशिशों के बाद इस झोंके को नहीं रोक पाए। अब देखना ये है कि इस कौमी एकता की नींव के पत्थर कौन-कौन साबित होंगे, इसका मुझे भी बेसब्री से इंतजार रहेगा। इसलिए सही कहा गया है-

लोग टूट जाते हैं एक घर बसाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलवाने में..।