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Wednesday 2 October 2019

जय जवान, बर्बाद किसान
बापू और जय जवान जय किसान का नारा देने वाले शास्त्री जी को याद करते हुए आज कुछ किसान दिल्ली के गेट तक पहुंचे। ये भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले यहां इकट्ठा हुए। एक साल पहले भी केंद्र सरकार से अपना हक मांगने (पंगा लेने) यहां आए थे। केंद्र सरकार ने उनको राजघाट यानि किसान घाट जाने की अनुमति रात में दी। उनकी सभी मांगों को यथाशीघ्र पूरी करने का आश्वासन दिया। सीधा-साधा किसान राजनीतिज्ञों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया(और करता भी क्या) और अपने दिवंगत नेताओं को राजघाट पर राम-राम कर वापस खेत में खटने चला गया।
एक साल बीत गया लेकिन किसानों की एक भी मांग पर अमल नहीं हुआ। इस दरम्यान उल्टा ये हुआ कि बिजली के दाम बढ़ गए, खाद के दाम बढ़ गए, दूध के दाम बढ़ गए, हल्दी-मिर्ची धनिया महंगा हो गया लेकिन उसकी उपज का लाभांश बिचौलिये सरकारों की सरपरस्ती में चट कर गए और कर रहे हैं। प्याज इसका जीता जागता उदाहरण है। मैं कोई भाषण नहीं लिख रहा। हकीकत बयां कर रहा हूं। आंकड़ों के साथ फिर कभी बताऊंगा लेकिन बीस साल पहले की चिंता अब और गहरा गई है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में जब डंकल का विरोध छात्र होने के दौरान किया तो बाकी लोगों ने यहां तक कि यूनिवर्सिटी प्रशासन ने भी विकास विरोधी बता हम लोगों को खारिज कर दिया।
तभी खुले बाजार में बिकेगी उच्च शिक्षा से मेरा लेख स्वतंत्र भारत में छपा जो आज जिसने भी पढ़ा अक्षरश: सही साबित करता है लेकिन उस समय उसे खारिज करना हुक्मरानों या उनके नुमाइंदों या सरकारों के अंधभक्तों की मजबूरी थी।
आज भी अधिक कुछ नहीं बदला। किसानों के बीच आज भी गया। मायूसी और लाचारी आज भी उनके चेहरे पर पढ़ी जा सकती है। यही नहीं दुनिया के दुग्ध उत्पादों के लिए बाजार खोलकर अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए रेड कार्पेट बिछा केंद्र सरकार ने देश के किसान को मारने का अंतिम प्रयास शुरू कर दिया है। हाईब्रिड और जीएम सीड ने किसान को अंधीलूट वाले मुनाफाखोर बाजार के बीच में पहले से ही पटख दिया है।
आने वाले समय में ना बीज पर आपका जोर चलेगा, न कीटनाशक दवाइयों पर और न ही रासायनिक खादों पर। ये सब विदेशी कंपनियों के देसी एजेंट आपको मुहैया कराएंगे। और सरकार आर्गेनिक खेती के लिए सब्सिडी का झांसा देकर किसानों को गुमराह करने का काम करेंगी। यानि खेती को भी बड़ी-बड़ी कंपनियां ठेके पर लेकर इच्छानुसार इलाकों में अपनी पसंद की खेती करेंगी और फसलों को मनमनाने दामों पर अपने स्टोर्स में मुहैया कराएंगी। आप और हम बंजर हुए खेतों के बाद मुंह मोड़ती कंपनियों और बेबस सरकारों का मुंह ताकने के सिवाय कुछ नहीं कर पाएंगे। काश! ऐसा ना हो तो बेहतर है।

Tuesday 13 August 2019

किसानों की झोली तो खाली ही रह गई


किसानों की झोली तो खाली ही रह गई
डॉ.अनिल चौधरी
केंद्र सरकार के अंतरिम बजट में खेती-किसानी का मुद्दा सबसे अधिक चर्चा में रहा। पहली बार किसी अंतरिम बजट में किसान बहस के केंद्र में रहा। हर नुक्कड़-चौराहे और चौपाल पर किसान की हालत पर बहस होती नजर आई। केंद्र सरकार ने दो हेक्टेयर यानि पांच एकड़ तक के किसान को छह हजार रुपये सालान की मदद देने के ऐलान को ऐतिहासिक कदम बताया। राष्ट्रीय कामधेनु आयोग का गठन और पशुपालन के साथ मतस्य पालन में क्रेडिट कार्ड योजना को लागू कर किसान हितैषी होने का दंभ भरा लेकिन किसान संगठनों ने इन घोषणाओं को सिरे से खारिज कर दिया। उनका मानना है कि किसान को सरकारों ने भिखारी की श्रेणी में ला खड़ा किया है जबकि उसे खैरात की नहीं फसल के उचित मूल्य और उसकी फसलों की खरीद की गारंटी की दरकार है। ऐसा नहीं हुआ तो ऋण माफी योजना तुरंत कुछ किसानों को राहत तो दे सकती है लेकिन उसे लगातार घाटे में जाती खेती से नहीं उबार सकती।
सवाल यह भी वाजिब है। तेलंगाना जैसा छोटा सा प्रदेश ऋतु बंधु योजना के तहत एक फसल के बुआई सीजन में 4000 हजार प्रति एकड़ यानि दो हेक्टेयर के हिसाब से 20 हजार प्रति फसल दे रहा है जो साल में 40 हजार बैठता है। वहीं ओडिशा में भी किसानों को दस हजार और भूमिहीन किसानों यानि पट्टे पर खेती करने वालों को 12500 रुपये देने की घोषणा की गई। ऐसे में केंद्र की मात्र 6000 रुपये की घोषणा से किसान को पल्ले कुछ पड़ेगा और इससे उसकी आमदनी में इजाफा होगा, इसकी संभावना नगण्य ही नजर रही है। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक एक सीजन में तीन हजार रुपये की मदद ऊंट के मुंह में जीरे के ही समान है। खुद भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की वर्ष 2012-13 की नमूना सर्वेक्षण संगठन रिपोर्ट इस बात की चुगली करती है कि इस दौरान देश में कुल 9.02 किसान परिवार थे। इनमें से 8.65 करोड़ किसान परिवार ऐसे थे जिनकी खेती की आय महीनेभर का खर्च चलाने के लिए पर्र्याप्त नहीं है। किसान परिवारों की महीने की औसत आय 3081 रुपये रही जबकि कुल उपभोग खर्च 6223 रुपये रहा। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि ऐसे किसान परिवारों का दो माह का घाटा भी इस रकम से पूरा नहीं हो पाएगा बाकि खर्च की कल्पना तो दूर की बात है। 
स्वामीनाथन कमेटी के सदस्य और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव अतुल अंजान कहते हैं कि सत्ता में आने से पहले भाजपा ने स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करने और किसानों की आमदनी दोगुना करने की पुरजोर वकालत की जिसके दम पर वह गद्दी पर बैठी लेकिन इस अंतरिम बजट ने किसानों और कृषि क्षेत्र को घोर निराशा दी। मोदी सरकार ने तीन वर्षों में सीमा, उत्पाद और सेल्स टैक्स से सात लाख करोड़ बटोरे लेकिन किसान को पेंशन के रूप में तीन रुपये तीस पैसे रोजाना दान स्वरूप थमा दिए। किसानों के साथ इससे भद्दा मजाक और कोई हो नहीं सकता।
भारतीय कृषक समाज के अध्यक्ष के कृष्णवीर चौधरी हालांकि इससे इत्तेफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि शुरुआत हुई जो एक अच्छा कदम है। दिल्ली-एनसीआर के किसानों को छोड़ दिया जाए तो देश के गरीब हिस्से के किसानों के लिए यह रकम राहत देने वाली है। राष्ट्रीय कामधेनु आयोग और पशुपालन-मछली पालने में क्रेडिट कार्ड योजना से केंद्र सरकार ने कष्ट में जी रहे किसान को संजीवनी देने का काम किया है। हालांकि वह खुद इसमें पांच हजार एकड़ यानि दो हेक्टेयर के हिसाब से 25 हजार की सहायता राशि को जायज ठहराते हैं। वे भी मानते हैं कि कर्ज माफी किसान की समस्या का समाधान नहीं बल्कि सब्सिडी का पूरा पैसा लगभग डेढ़ लाख करोड़ बैठता है, वह किसान की झोली में आए तो उसके हालात और बेहतर होेंगे। फ्यूचर ट्रेडिंग से किसान और मारा गया है।
उत्तर प्रदेश कृषि समृद्धि आयोग के सदस्य धर्मेंद्र मलिक कहते हैं कि भावान्तर योजना सरकार ने लागू की। एमएसपी और मंडी के दाम के बीच का अंतर सरकार वहन करे। एमएसपी 26 फसलों का है और सरकार केवल गेहूं और चावल ही खरीदती है, बाकि फसल भी खरीदे। बेसिक फसलों का भी एमएसपी तय हो और फसल की खरीद की गारंटी सरकार ले तभी किसान खुशहाल होगा वरना उसका और घाटे में जाना तय है। आज गन्ना किसानों का 20 हजार करोड़ का भुगतान नहीं हो रहा। किसान की चिंता है तो पहले यह भुगतान कराएं। तिमाही दो हजार की राशि किसानों को बरगलाने का शिगुफाभर है।
एशिया फार्मर्स कॉर्डिनेशन कमेटी के समन्वयक युद्धवीर सिंह भी मानते हैं कि सरकार ने अंतरिम बजट में किसानों को छह हजार देकर उसके साथ भद्दा मजाक किया है। उन्हें उम्मीद थी कि सरकार भावान्तर के मामले पर कुछ करेगी लेकिन कुछ नहीं हुआ। वे कहते हैं कि इस बार दलहन एमएसपी से साढ़े तीन हजार रुपये कुंतल के कम पर बिकी। सरसों में प्रति कुंतल 800 रुपये का घाटा हुआ। किसान को खैरात में पैसे नहीं बल्कि उसकी फसल के सही भाव ही मिल जाएं तो वह गुजर बसर कर लेगा। यह घोषण केवल चुनावी स्टंट है कुछ और नहीं। जो किसान दबाव में सरकार के नारे लगा रहे हैं उन्हें भी पता है कि किसान को कुछ नहीं मिला।

बदहाल देश का गन्ना किसान


बदहाल देश का गन्ना किसान 
डॉ.अनिल चौधरी
देश का गन्ना किसान बदहाली के कगार पर है। कहने भर को गन्ने की गिनती नगदी फसलों के रूप में की जाती है लेकिन समय से भुगतान होने और उचित मूल्य मिलने से गन्ना किसान की हालत लगातार बदतर होती जा रही है। भुगतान होने की वजह से उसके रोजमर्रा के काम चौपट हो ही रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई और उनकी शादी-ब्याह तक में अड़चन पैदा हो रही है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि देश के तमाम हिस्सों से अब गन्ना किसानों की आत्महत्या तक की खबर आने लगी हैं। गन्ना मूल्य की निर्धारण नीति में भी इतनी खामियां हैं कि हर साल सीजन शुरू होने के बाद भी गन्ने के रेट सही तरीके से तय नहीं हो पा रहे। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच गन्ना किसान लगातार पिस रहा है। मिल मालिक तो हर साल घाटे का बहाना बनाकर सरकारों से करोड़ों का विशेष पैकेज झटक लेते हैं लेकिन गन्ना किसान की हालत जस की तस ही रहती है। यह हाल तब है जब पिछले एक साल से किसानों के आंदोलनों ने सरकारों की चूलें हिलाने का काम किया लेकिन आश्वासन से ज्यादा उसे कुछ भी नसीब नहीं हुआ।
इस साल 13 फरवरी तक देशभर में गन्ना बकाया 20,167 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसमें से एफआरपी (गन्ने का केंद्रीय मूल्य) के आधार पर यह बकाया 18,157 करोड़ रुपये है। गन्ने का सबसे अधिक 7,229 करोड़ रुपये का बकाया उत्तर प्रदेश में है। महाराष्ट्र में यह बकाया 4,792 करोड़ रुपये और कर्नाटक में 3,990 करोड़ रुपये है। यह हालात तब हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पिछले चुनाव घोषणा पत्र में किसानों को उनका बकाया मात्र 14 दिन में भुगतान कराने का वादा किया था। उसके बाद उत्तर प्रदेश हो, महाराष्ट्र हो या मध्यप्रदेश सभी के मुख्यमंत्रियों ने इस पर अमल करने का दंभ भरा लेकिन पिराई सत्र के बाद भी एक साल हो गया अभी भी किसानों का बीते सत्र का ही करोड़ों रुपये बकाया है। इतना अवश्य हुआ कि इसकी आड़ में मिलों ने विशेष पैकेज झटका फिर भी किसानों को भुगतान के नाम पर चंद राशि थमा दी गई। इस बार भी जब चीनी मिलों ने बाजार में 26 27 रुपये प्रति किलो चीनी बिकने से घाटे का रोना रोया तो केंद्र सरकार ने फरवरी के दूसरे सप्ताह में चीनी मिल के गेट पर चीनी का बिक्री मूल्य 29 रुपये से बढ़ाकर 31 रुपये प्रति किलोग्राम कर दिया था। उसके बाद भी मिलों ने भुगतान को कोई तवज्जो नहीं दी।
निजी चीनी मिलों का शीर्ष संगठन इंडियान शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) ने भी खुद माना कि देशभर के गन्ना उत्पादकों का चीनी मिलों पर बकाया रकम 31 दिसंबर 2018 तक बढ़कर करीब 19,000 करोड़ रुपये हो गई, जिसमें पिछले साल का 2,800 करोड़ रुपये का बकाया भी शामिल है और मौजूदा सीजन में बकाया राशि पिछले सीजन के करीब 10,600 करोड़ रुपये के मुकाबले काफी ज्यादा है। इस्मा के अनुसार, 15 जनवरी तक देशभर में चालू 510 मिलों में चीनी का उत्पादन 146.86 लाख हुआ है, जोकि पिछले साल की समान अवधि से 8.32 फीसदी अधिक है. पिछले साल देशभर में 15 जनवरी तक चीनी का उत्पादन 135.57 लाख टन हुआ था.
मिलों को ही और राहत की तैयारी
केंद्र सरकार चीनी मिलों के घाटे की भरपाई करने और किसानों का गन्ने का बकाया भुगतान कराने का फार्मूला तलाशने में जुटी है। खुद केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने एक साक्षात्कार में बताया कि प्रधानमंत्री की अगुवाई में केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और नितिन गडकरी के साथ हुई बैठक में जल्द ही नई नीति पर विचार किया जा रहा है। चीनी पर सेस की तैयारी की जा रही है। एथनॉल के उत्पादन को अनिवार्य बनाया जा रहा है इसीलिए अब तक एथनॉल पर लगने वाले 18 प्रतिशत जीएसटी को भी घटाने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि पासवान एक भुगतान को लेकर गेंद राज्य सरकारों के पाले में खिसका खुद को किसान हितैषी होने का दंभ भरते दिखे। उन्होंने एजेंसी को दिए एक साक्षात्कार मेंकहा कि अंतत: गन्ना भुगतान की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है और वे मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिख रहे हैं लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि जिन राज्यों में सबसे अधिक गन्ने का बकाया है वहां पर उनके गठबंधन की ही सरकारें हैं। यही नहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार भी किसानों के बारे में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर बकाया भुगतान से परेशान किसानों के विद्रोह को टालने के लिए तत्काल कदम उठाने का आग्रह कर चुके हैं।
मिल घाटे में सरासर झूठ
कृषि विशेषज्ञ र्देंवदर शर्मा का मत है कि गन्ना किसानों की परेशानी चीनी मिलों की ब्लैकर्मेंलग से शुरू होती है। यह आज की बात नहीं है, पिछली सरकारों को भी चीनी मिलों ने ब्लैकमेल किया है। चीनी मिलें घाटे में चल रही हैं। यह सरासर झूठ है। सरकारें भी इस झूठ में उनके साथ हैं। चाहे वह उत्तर प्रदेश, पंजाब या फिर केंद्र की सरकार ही क्यों हों. केंद्र की मोदी सरकार ने तो कमाल ही कर दिया है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी बोलते हैं किसानों को भगवान या सरकार के भरोसे नहीं होना चाहिए। लेकिन जो बात वह नहीं बोलते हैं वह यह है कि किसानों को सिर्फ इंडस्ट्री के भरोसे होना चाहिए। अब अगर यह होगा तो किसानों का भला कैसे होगा? हमें यह समझना होगा कि सरकार की मंशा सिर्फ इंडस्ट्री की मदद करने की है। वैसे भी चीनी मिलें हमेशा फायदे में रहती हैं, जब बंद अर्थव्यवस्था थी तब उन्होंने खूब मुनाफा कमाया और आज जब खुली अर्थव्यवस्था है तब भी वह अपना मुनाफा कम नहीं होने देना चाह रही हैं। किसानों की परवाह उन्हें नहीं हैं।
ये है 14 दिन में गन्ना भुगतान का गणित
मिलों को गन्ने की खरीद के बाद निर्धारित 14 दिन के भीतर किसानों को भुगतान करना होता है अगर इस अवधि में भुगतान नहीं किया गया तो वह बकाया कहलाता है। इसके बाद ब्याज सहित किसानों को गन्ने का भुगतान जरूरी है। लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गन्ना नीति तो बनाई गई फिर भी आज तक किसानों को ब्याज सहित गन्ने का भुगतान आज तक किसी भी सरकार ने नहीं किया। इसके लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक किसानों ने मुकदमे लड़े और अदालतों ने ब्याज सहित भुगतान करने के आदेश भी समय-समय पर जारी किए लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा।
ब्राजील मॉडल अपनाना जरूरी
गन्ना किसानों की भुगतान की समस्या और मिलों की सरप्लस चीनी के कारण घाटे का बहाना इन दोनों समस्याओं से ब्राजील मॉडल अपनाकर छुटकारा पाया जा सकता है। इसके लिए केंद्र सरकार को ठोस पहल करनी होगी। गन्ने से एथनॉल नाम का उत्पाद बनता है जिसे कार में पेट्रोल के स्थान पर डाला जा सकता है। ब्राजील ने इस नीति का बहुत सफल उपयोग किया है। वहां गन्ने का उत्पादन लगातार बढ़ा रहा है। विश्व बाजार में जब पेट्रोल महंगा होता है तो ब्राजील गन्ने का उपयोग एथनॉल के उत्पादन के लिए करता है और चीनी का निर्यात कम कर देता है। इसके विपरीत जब विश्व बाजार में चीनी का दाम अधिक होता है तो एथनॉल का उत्पादन कम करके चीनी का उत्पादन बढ़ाता है और उस चीनी को निर्यात करता है। केंद्र ने एथनॉल बनाने का लक्ष्य 10 फीसदी रखा लेकिन हमारे देश में वर्ष 1917-18 में मात्र 4.5 फीसदी ही लक्ष्य तय हो पाया। जबकि 70 लाख टन चीनी सरप्लस रही। इसके लिए केंद्र ने राज्य सरकारों के पाले में गेंद डाली है ताकि वह एथनॉल का अधिकतर उत्पादन कर सकें लेकिन अभी तक कोई ठोस नीति धरातल पर उतरती नजर नहीं रही।
ये था रंगराजन समिति का फार्मूला
रंगराजन समिति (2012) ने चीनी उद्योग के नियंत्रण संरचनात्मक असंतुलन को दूर करने हेतु चीनी के बाजार मूल्य के साथ गन्ना की कीमतों को जोड़ने का सुझाव दिया। रंगराजन समिति की रिपोर्ट के आधार पर, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने गन्ना की कीमतों को ठीक करने के लिए एक मिश्रित दृष्टिकोण की सिफारिश की, जिसमें उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) और राजस्व साझाकरण फॉर्मूला (आरएसएफ) शामिल किया गया। इस दृष्टिकोण के तहत अगर चीनी और उप-उत्पादों की कीमत अधिक है तो गन्ना किसानों का राजस्व भी अधिक होगा। गन्ना के प्रमुख उत्पादकों में से महाराष्ट्र और कर्नाटक ने राजस्व साझा करने के इस फार्मूले को स्वीकार कर लिया है। हालांकि, यूपी पुराने एमएसपी मॉडल का पालन कर रहा है। एमएसपी और आरएसएफ द्वारा निर्धारित मूल्य के बीच बड़ा अंतर यूपी में बकाये की गंभीर समस्या का मुख्य कारण माना जाता है।
गन्ना व्यापार का अर्थशास्त्र त्रुटिपूर्ण
चीनी निर्माताओं का राजस्व चीनी की कीमत और तीन प्राथमिक उप-उत्पादों अर्थात गुड़, बैगेज और प्रेस मिट्टी पर निर्भर करता है। गुड़ का उपयोग इथेनॉल के निर्माण के लिए किया जाता है, बैगेज (खोई) का उपयोग पेपर और लुगदी उद्योग में किया जाता है इसके अलावा इस खोई का उपयोग बिजली के अधिशेष के उत्पादन में भी किया जाता है जो राज्यों को बेचा जाता है, और प्रेस मिट्टी का उपयोग किसानों द्वारा खाद के रूप में किया जाता है। भारत के 485 परिचालित चीनी मिलों में से 201 आसवन क्षमता वाली हैं और 128 इकाइयां एथनॉल का उत्पादन करती हैं। हालांकि, एकीकृत मिलों के कुल राजस्व में एथनॉल केवल 10-15 प्रतिशत का ही योगदान देता है। चीनी मिले चीनी के अलावा इससे बनने वाले तमाम प्रोटक्ट को भी बाजार में बेचकर मोटा मुनाफा हैं लेकिन किसान की उसमें कभी कोई हिस्सेदारी तय ही नहीं की गई।
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत का कहना है कि मोदी सरकार कुछ कर रही है, ही बाकी राज्य सरकारें। किसान बेचारा इतनी मेहनत करके कड़ाके की ठंड में मरकर जो फसल उगाता है अगर उसकी मूल लागत भी मिले तो वह क्या करे? मोदी सरकार जय जवान जय किसान के नारे के साथ बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई थी लेकिन अब किसानों र्की ंचता किसी को नहीं है.’ भाजपा सरकार ने इस बार भीर गन्ने का दाम नहीं बढ़ाया, जबकि गन्ना उगाने की लागत कई गुना बढ़ चुकी है। एक कुंतल गन्ना बोने में लागत 400 रुपये के करीब पड़ रही है। हम तो फिर भी 350 रुपये की मांग कर रहे हैं।
बॉक्स: चीनी और चीनी मिलों की स्थिति
-दुनिया की सबसे बड़ा चीनी उपभोक्ता भारत है जहां 26 मिलीयन टन प्रतिवर्ष की दर से उपभोग होता है
-दुनिया में दूसरे नंबर का सबसे अधिक चीनी उत्पादक देश भारत है जहां प्रतिवर्ष 31 मिलीयन टन चीनी का उत्पादन होता है।
-प्रति वर्ष भारत में एक लाख करोड़ का चीनी का वार्षिक कारोबार होता है।
-करीब 530 चीनी मिलें भारत में संचालित हो रही है।
-करीब 5 लाख कर्मचारी चीनी मिलों में कार्यरत हैं।
-करीब 50 लाख हेक्टेयर जमीन पर गन्ने का उत्पादन होता है।
-करीब 85 हजार करोड़ रुपये का गन्ने का भुगतान हर साल किया जाता है।
-भारत में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति 20 किलो चीनी का उपभोग किया जाता है, जो काफी कम माना जाता है।